” बेटी ”
शीर्षक:-बेटी
विधा-कविता
घर के बागो में पली एक नन्ही सी चिड़िया हैं
परीयों के ख्वावों की दुनिया में उड़ान भरती हैं
कहती तुतली भाषा से मुझे अम्मा बुलाती हैं
मेरी प्यारी बिटिया मेरे बचपन को याद दिलाती हैं
बनकर फूल की तरह मेरे घर को महकाती हैं
बनकर भौरो की गुंजन तरह गुलजार करती हैं
खेलती मिट्टी के खिलौने खनखनाहट हँसती हैं
खेलकर सखियों संग खेल स्वयं सयानी बताती हैं
हो चली पड़ी मेरी बिटिया बड़ी नटखट हैं
कल-परों ब्याह हो संग चली जायेगी ससुराल हैं
बनकर दुल्हन राज करने पिया घर ब्याह जाती हैं
आँखों में अश्रु,गला भरा हुआ सपनों समेट जाती हैं
होकर,, वो बेटी दोनों कुल की लाज रखती हैं
गौरन्वित होते है, माता-पिता हर त्याग करती हैं
किस्मत से बेटी धन मिले सौभाग्य से मिलती हैं
कुरबानी देकर हर खुशी न्यौछावर करती हैं
पहले बेटी फिर पत्नी,माँ,बहन हर रिश्ते बनाती हैं
नारी की पहली पहचान सर्वप्रथम बेटी कहलाती हैं
✍️Rishika ishita 【💕Dil ki bat】
पूजे कई देवता मैंने तब तुमको था पाया |
क्यों कहते हो बेटी को धन है पराया |
यह तो है माँ की ममता की है छाया |
जो नारी के मन आत्मा व शारीर में है समाया ||
मैं पूछती हू उन हत्यारे लोगों से |
क्यों तुम्हारे मन में यह ज़हर है समाया |
बेटी तो है माँ का ही साया |
क्यों अब तक कोई समझ न पाया |
क्या नहीं सुनाई देती तुम्हे उस अजन्मी बेटी की आवाज़ |
जो कराह रही तुम्हारे ही अंदर बार-बार |
मत छीनो उसके जीने का अधिकार |
आने दो उसको भी जग में लेने दो आकार |
भ्रूण हत्या तो ब्रह्महत्या होती है |
उसकी भी कानूनी सजा होती है |
यहाँ नहीं तो वहाँ देना होगा हिसाब |
जुड़ेगा यह भी तुम्हारे पापों के साथ ||
अजन्मी बेटी की सुन पुकार |
माता ने की उसके जीवन की गुहार |
तब मिल बैठ सबने किया विचार |
आने दो बेटी को जीवन में लेकर आकार |
तभी ज्योतिषों ने बतलाया |
बेटी के भाग्य का पिटारा खुलवाया |
यह बेटी करेगी परिवार का रक्षण |
दे दो इस बार बेटी के भ्रूण को आरक्षण |
शीर्षक :- बेटी
माँ की लाडो और पिता की जान होती है बेटी
अनचाही ख्वाहिश और अरमान होती है बेटी।
ताउम्र बेटी होने के बोझ तले दबी होती है बेटी।
अपने सपने लूटा ख्वाब दूसरो के संझोती है, बेटी।
दूसरों को दे मुस्कान, तन्हाई में खुद रोती है, बेटी।
बड़े ही एहतियात से रिश्तों की माला पिरोती है, बेटी।
चिराग है बेटा तो ,दो घरों की रोशनी होती है बेटी! साक्षात लक्ष्मी का रूप है ना समझो कि पनौती है बेटी!
अगर खुशहाल होता है जहाँ अक्सर खुश होती है बेटी।
छोड़ बाबुल का अंगना पिया के घर चली जाती है बेटी।
जो दर्द समझे माँ बाप का वो इंसान इकलौती है बेटी!
देने सबको खुशियाँ अपने अरमानों की चिता जलाती है बेटी!
कहीं भ्रूण हत्या तो कभी आबरू अपनी खोती है बेटी।
हर कदम पर अपने सपने लुटा कर बड़ी होती है बेटी।
-priya pandya
शीर्षक-बेटी
विधा-कविता
माँ का गर्व, पिता की लाडली होती है बेटी
स्नेह के सिवा और कुछ नहीं चाहतीं बेटी।
कभी छोटी-छोटी बात पर आँसू बहाती है बेटी,
कभी परिवार के लिए तूफ़ान से लड़ जातीं है बेटी।
कभी मासूमियत उनकी माँ-पिता का स्नेह माँगे,
उनके सम्मान के लिए गैरों से टकराती हैं बेटी।
शारीरिक क्षमता से उन्हें कभी मत आँकना,
पर्वत सदृश मज़बूत हृदय की होती हैं बेटी।
छोड़कर एक घर दूसरे घर को अपनाती हैं बेटियाँ,
माँ-पिता के संस्कारों से दूसरा घर सजाती हैं बेटियाँ।
सुनो बेटियों को तुम कभी पराया न समझना,
ससुराल जाकर भी माँ-पिता का माँ बढ़ाती हैं बेटियाँ।
ससुराल में बर्दाश्त करतीं हैं वो अन्याय को भी,
माँ-बाप के संस्कारों का बोझ मरते दम तक उठाती है बेटियाँ।
खुले आसमान तले उन्हें भी जन्म लेने का हक़ है,
फिर क्यों गर्भ में ही मार दी जातीं हैं बेटियाँ।
Writer Neha Pandey
बेटी
है जो आज बेटी, वही बनती माता।
सृजन की, सहन की, है शक्ति अगाधा।
है बेटा जो छप्पर, तो बेटी है आँगन।
जो बेटी हुलसती, तो घर होता पावन।
चली चाल नटखट, बजी घर में पायल।
जो थामी रसोई, बनी मां का संबल।
है भाई की बहना, वो ममता का आँचल।
है पापा की लाडो, चहकती है चंचल।
संभाले रसोई जो दिन रात थकती।
परेशान हो मां, ये न देख सकती।
मगर फिर भी बेटा, है बेटी से अच्छा।
नहीं मिलती बेटी को कोई सुरक्षा।
कभी गर्भ में ही जनक मार देते।
अगर बच गई तो, नहीं प्यार देते।
सभी खा चुके तब, करे बेटी भोजन।
बचा कुछ ही मिलता, कि जैसे हो जूठन।
जो ढोती सभी की, है आशा उपेक्षा।
ससुराल में भी, मिले बस समीक्षा।
उठो हे सुते तुम, भरो तन में बिजली।
चलो राह पर ज्यों कि सिंहनी हो निकली।
दिखाओ वो प्रतिभा कि दुनिया भी जाने।
है बेटी में क्षमता, गगन भूमि माने।
कवि… अमित कुमार मिश्रा
शीर्षक – बेटी
विधा – कविता
यूँ तो समाज में प्राचीन काल से ही,
सदा पराई कहलाती है बेटी।
पर न जाने क्यों मुझे सदा,
बहुत अपनी सी लगती है बेटी।
घर-आँगन में खुशियों का बसेरा रहता है,
जब तक साथ रहती है बेटी।
बचपन से ही पढ़ने के साथ-साथ,
सबकी फ़िक्र कर लेती है बेटी।
पाइ-पाइ बचा बिन कहे ही सबके सपने,
पूरे करने की कोशिश करती है बेटी।
हर छोटी-बड़ी अपनी इच्छा को छुपाकर,
ओरों की खुशी में अपनी खुशी तलाश लेती है बेटी।
फिर भी लोग उसको दुत्कारते है,
कहते है पराया धन होती है बेटी।
तो क्यों हम उम्मीद लगाते है जीवनभर,
हमारी और सबकी सेवा-सुश्रुषा करेगी हमारी बेटी।
अजीब बात है न,पराया धन होकर भी,
मायके और ससुराल दोनों की शान कहलाती है बेटी।
मुझे तो ये पराया धन समझे जाने वाली,
न जाने क्यों बड़ी अपनी सी लगती है बेटी।
नाम – प्रिया कुमारी